मलेरिया मुक्त भारत: कितनी दूर, कितने पास?

मलेरिया का नाम सुनते ही भारत के गांवों की एक धुंधली, भयावह छवि उभरती है—कच्चे घर, बदबूदार नालियां, हर तीसरे घर में बुखार से तपता कोई बच्चा, झोला छाप डॉक्टरों की क्लीनिक के बाहर की कतार और अंततः जागरुकता और सुविधाओं की कमी का नकाब पहने चुपचाप आती मौत। यह बीमारी सिर्फ शरीर पर नहीं, मानसिकता पर भी वार करती थी। साल दर साल, पीढ़ी दर पीढ़ी यह हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बनती गई, मानो यह भी उसी खेती-बाड़ी की तरह ‘मौसमी’ हो, जैसे बरसात या सूखा।
लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। भारत, जो कभी विश्व स्वास्थ्य संगठन की मलेरिया पर विशेष निगरानी सूची में चौथे स्थान पर था, अब वहां से बाहर है। 2023 के अंत तक, पूरे देश में मलेरिया से मात्र 83 मौतें दर्ज की गईं। यह आंकड़ा जितना छोटा दिखता है, इसके पीछे उतनी ही लंबी और संघर्षपूर्ण कहानी है—जिसमें सरकारें, स्वास्थ्यकर्मी, स्थानीय समुदाय और टेक्नोलॉजी, सभी ने अपनी भूमिका निभाई है।
2013 में यही भारत मलेरिया से हज़ार से ज़्यादा मौतों का गवाह था। उस समय देश में लगभग 10 लाख से ज़्यादा संक्रमण के मामले सामने आते थे। गरीब, आदिवासी और सुदूर ग्रामीण इलाकों में यह बीमारी मौत का परवाना थी। लेकिन 2015 के बाद केंद्र सरकार ने नए भारत की शुरुआत के साथ ही ‘नेशनल फ्रेमवर्क फॉर मलेरिया एलिमिनेशन’ की शुरुआत की, और 2017 में ‘नेशनल स्ट्रैटेजिक प्लान’ लाया गया। इन योजनाओं में जिन बातों पर सबसे ज़्यादा ध्यान दिया गया, वह थे—रोकथाम, समय पर इलाज, निगरानी और जन-जागरूकता।
2023 में मलेरिया के मामले घटकर 2.2 लाख रह गए, और मौतें सिर्फ 83। यानी बीते एक दशक में भारत ने मलेरिया से होने वाली मौतों को 90% से ज़्यादा कम कर दिया है। और यह ऐसे समय में हुआ है जब वैश्विक स्तर पर मलेरिया एक बार फिर से विकराल रूप ले रहा है। 2023 में पूरी दुनिया में मलेरिया से 597,000 से अधिक मौतें हुईं—जिसमें सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्र अफ्रीका रहा। लेकिन सवाल उठता है—भारत में यह जीत इतनी देर से क्यों आई?
आज जब हम मलेरिया नियंत्रण पर आत्ममुग्ध होकर पीठ थपथपा रहे हैं, तो यह भी याद करना ज़रूरी है कि यह वही देश है जहाँ आज़ादी के बाद दशकों तक सार्वजनिक स्वास्थ्य को उपेक्षित रखा गया। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खाली पड़े रहे, दवाएं अनुपलब्ध थीं और डेटा संग्रह पूरी तरह दोषपूर्ण। मलेरिया को एक ‘गरीबों की बीमारी’ मान लिया गया, और इसकी तरफ़ न तो पर्याप्त बजट दिया गया और न ही तकनीकी प्राथमिकता। नब्बे के दशक में भारत में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा उपलब्ध कराए गए डीडीटी जैसे साधनों का उपयोग बेतरतीब ढंग से हुआ, जिससे कई बार पर्यावरणीय नुकसान भी हुआ और बीमारी भी काबू में नहीं आई।
यहां तक कि 2018 में जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत को ‘मलेरिया हॉटस्पॉट’ देशों की सूची से बाहर किया, तब भी यह सवाल कायम रहा कि यह प्रगति अगर 10 साल पहले होती, तो शायद हज़ारों ज़िंदगियां बच सकती थीं। यह वह कड़वी सच्चाई है जिसे जनसत्ता के पाठकों को जानना चाहिए—कि हमारे देश में बीमारियां कभी तात्कालिक आपदा नहीं रहीं, बल्कि उन्हें धीरे-धीरे सामान्य मान लिया गया।
फिर भी, यह स्वीकार करना होगा कि 2015 के बाद बदलाव शुरू हुआ। ग्राम पंचायत स्तर पर मलेरिया स्क्रीनिंग, घर-घर सर्वेक्षण, मच्छरदानी वितरण और डिजिटल रिपोर्टिंग की शुरुआत की गई। सबसे अहम भूमिका निभाई ‘आशा’ और एएनएम कार्यकर्ताओं ने, जिन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को दवाएं दीं, टेस्ट किए, और जागरूकता फैलाई।
भारत के मलेरिया विरोधी अभियान की एक विशेषता यह भी रही कि इसने डिजिटल हेल्थ टेक्नोलॉजी को अपनाया। कई राज्यों में मोबाइल ऐप आधारित निगरानी शुरू हुई, जिससे एक-एक केस को ट्रैक किया गया। मलेरिया के ‘हॉटस्पॉट’ चिह्नित किए गए और वहाँ विशेष टीमें भेजी गईं। आज बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में मलेरिया के आंकड़े एक दशक पहले के मुकाबले 70–80% तक गिर चुके हैं। लेकिन क्या यह जीत स्थायी है? शायद नहीं।
एक खतरा जो इस पूरी प्रगति को खतरे में डाल सकता है वह है—जलवायु परिवर्तन। बढ़ते तापमान और अनियमित वर्षा से मच्छरों का जीवन चक्र बढ़ रहा है। कई ऐसे क्षेत्र जहां पहले मलेरिया नहीं होता था, अब वहाँ भी इसके मामले सामने आने लगे हैं। दूसरी ओर, औषधि प्रतिरोधी मलेरिया का खतरा भी बढ़ रहा है—खासतौर पर प्लाज्मोडियम फेलसिफेरम जैसे प्रकारों में।
इसके अलावा, शहरी झुग्गियों और आदिवासी क्षेत्रों में अब भी स्थिति उतनी संतोषजनक नहीं है। स्वच्छता, साफ़ जल और जागरूकता की कमी के चलते मलेरिया की संभावनाएं वहां बनी हुई हैं। सरकारी रिपोर्टिंग भले ही मौतों में गिरावट दिखा रही हो, लेकिन गैर-रिपोर्टेड केसों की संख्या अभी भी चिंता का विषय है।
मलेरिया से जंग के इस अंतिम दौर में यह जरूरी है कि सरकार अब आंकड़ों से आगे बढ़कर सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं पर ध्यान दे। गरीबों के लिए स्वास्थ्य सिर्फ़ एक ‘सेवा’ नहीं, बल्कि ‘जीवन रक्षा’ का माध्यम है। अगर 2030 तक भारत को मलेरिया मुक्त बनना है, तो जल-प्रबंधन, शहरी सफाई, प्राथमिक चिकित्सा व्यवस्था और ग्रामीण बस्तियों में सामुदायिक स्वास्थ्य तंत्र को सशक्त करना होगा।
लोक मंच हमेशा से यह कहता आया है कि बीमारी सिर्फ़ चिकित्सा का विषय नहीं, बल्कि सामाजिक अन्याय की अभिव्यक्ति है। मलेरिया कोई ‘वायरस’ नहीं, यह ‘व्यवस्था’ की विफलता से पैदा हुई एक पीढ़ियों पुरानी त्रासदी थी—जिससे अब बाहर आने की कोशिश हो रही है।
2030 का भारत अगर मलेरिया मुक्त होता है, तो वह सिर्फ़ एक स्वास्थ्य उपलब्धि नहीं होगी, बल्कि यह उस सोच की जीत होगी जो कहती है—’गरीब का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है जितना किसी और का’।
अब समय है कि हम इस सोच को सिर्फ नीति में नहीं, जमीन पर उतारे। ताकि अगली बार जब कोई बच्चा बुखार से कांपे, तो माँ को डर न हो—बल्कि भरोसा हो कि उसका देश, उसकी ज़िंदगी की परवाह करता है।
सचिन त्रिपाठी
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है। विविध विषयों में लिखते हैं।)