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शंभूचरण दुबे- स्वार्थ नहीं, स्वाभिमान और सेवा की राजनीति का चेहरा…

रेवांचल रोशनी गेस्ट ऑफ़ द वीक:

राजनीति में जब ज़्यादातर चेहरे सत्ता और स्वार्थ की दौड़ में मशगूल दिखते हैं, तब कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो सेवा और संघर्ष को अपना जीवनव्रत बना लेते हैं। सतना जिले के शंभूचरण दुबे ऐसे ही एक दुर्लभ नेता हैं, जिन्होंने राजनीति को अपनी महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि आम जनता की समस्याओं का समाधान बनाने का जरिया चुना। वे उन चंद लोगों में से हैं जिनसे लोग दिमाग से नहीं, दिल से जुड़ते हैं।

शंभूचरण दुबे सिर्फ भाषणों और तस्वीरों तक सीमित चेहरा नहीं हैं। उन्होंने आशा, उषा, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, और अतिथि शिक्षक जैसे संगठनों की समस्याओं को सड़क से सदन तक उठाया है। राजधानी भोपाल तक अपने साथियों की मांगों के लिए आंदोलन करना उनके संघर्षशील स्वभाव का प्रमाण है। उनकी पहल पर कई बार मानदेय में सुधार जैसे ठोस परिणाम सामने आए हैं।

एक समृद्ध पृष्ठभूमि से आने के बावजूद दुबे ने हमेशा गरीबों और वंचितों के साथ खड़ा होना चुना। बिरला सीमेंट फैक्ट्री के मजदूरों के अधिकारों के लिए जब उन्होंने मोर्चा संभाला, तो उन्हें जेल जाना पड़ा, उनका मानना है कि अगर स्वाभिमान और संघर्ष नहीं हो, तो जीवन केवल दिखावा रह जाता है।

आज शंभूचरण दुबे सतना जिले में उस नाम के रूप में स्थापित हैं, जिस पर महिलाएं, मजदूर, वंचित वर्ग और असहाय लोग आंख मूंदकर भरोसा करते हैं। लोग उन्हें नेता नहीं, अपना भाई, बेटा और हमदर्द मानते हैं। बिना किसी तामझाम के उनके घर रोज कोई न कोई अपनी समस्या लेकर आता है और उन्हें निराश नहीं लौटना पड़ता।

राजनीति में लाभ और पदों की लालसा को वे ठुकरा चुके हैं। कई बार उन्हें बड़े पद और अवसर मिले, लेकिन उन्होंने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उनका स्पष्ट कहना है, जिस दिन मेरा स्वाभिमान मरा, उस दिन मैं खुद को मरा हुआ मान लूंगा।

व्यापारिक जगत से उनके संबंध भी विशिष्ट हैं। जहाँ अधिकतर लोग व्यापारियों से लाभ की अपेक्षा रखते हैं, शंभूचरण दुबे ने समय आने पर उन्हें परेशानियों से बाहर निकालने में साथ दिया, व प्रयास किया। फिर चाहे सामाजिक विवाद हो या प्रशासनिक उलझन, वह हमेशा आगे बढ़कर अपनों के लिए खुद को ढाल बनाते हैं। यही कारण है कि वे लोगों में डर से नहीं, भरोसे से पहचाने जाते हैं।

शंभूचरण दुबे अपनी प्रेरणा का श्रेय अपने बड़े भाई श्री गौरीचरण दुबे को देते हैं, जिन्होंने उन्हें सही मार्गदर्शन, सहयोग और आत्मबल दिया। परिवार से मिले संस्कारों ने ही उन्हें संघर्षशील, निडर और संवेदनशील बनाया।

उनका मानना है कि विश्वास ही सबसे बड़ी पूंजी है। जिसने मुझ पर भरोसा किया है, उसके लिए मैं अंतिम सांस तक खड़ा रहूंगा, चाहे मुझे कितना भी नुकसान क्यों न उठाना पड़े।

उनका यही समर्पण उन्हें सिर्फ गेस्ट ऑफ़ द वीक नहीं, बल्कि ज़मीन से जुड़ी राजनीति का असली चेहरा बनाता है……

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