रेवांचलरोशनी-: ताजमहल को दुनिया भर में मोहब्बत की निशानी के रूप में देखा जाता है जबकि वास्तविकता में यह हैवानियत का प्रतीक है। इसे देश का गौरव नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसकी सुन्दरता के पीछे की दर्दनाक दास्तां का स्मरण करते ही रूह कांप उठती है और अन्दर से आवाज आती है कि यह तो हमारे देश की कृतज्ञ संस्कृति को कुचलने वाला बदनुमा दाग है।
ताजमहल को क्रूर मुस्लिम शासक शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज की याद में बनवाया था। उस शैतान ने उन हजारों कारीगरों के हाथ केवल इसलिए कटवा दिये थे कि ये हुनरमंद कारीगर फिर दोबारा ताजमहल जैसी दूसरी इमारत का निर्माण न कर सकें। यह देश कृतज्ञ संस्कृति और दयालुता का है। यह देश भगवान बुद्ध और भगवान महावीर का देश है। हम लोगों को ताजमहल की खूबसूरती की तारीफ में व्यक्त किये गये विदेशी राष्ट्राध्यक्षों के कसीदों पर इतराना नहीं चाहिए बल्कि क्रूरता का स्मरण करके शर्म आनी चाहिए।
जब कोई विदेशी आता है तब उसे गाइड यह नहीं बताते कि जिस ताजमहल की खूबसूरती दुनियां भर में मशहूर है। उसके पीछे कितनी क्रूरता और हैवानियत छिपी हुई है। शाहजहां को उन सभी हुनरमंद कारीगरों को सर आँखों पर बैठाकर रखना चाहिए था लेकिन कृतघ्न संस्कृति में पले बढ़े उस शैतान ने उल्टे उन्हीं के हाथ कटवा दिये जिन्होंने इस ताजमहल को कई वर्षों में अपनी मेहनत और लगन के बल पर तराश कर उसे खूबसूरती प्रदान की थी।,
उस शैतान के पुत्र औरंगजेब ने जैसे को तैसा वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए अपने बाप यानी शाहजहां को ही कैद की डाल दिया। हालांकि औरंगजेब भी अपने बाप की भांति क्रूर और आक्रांता था लेकिन यह काम उसने अच्छा किया। चाहे मुस्लिम शासक हों अथवा अंग्रेज रहे हों, नीचता की पराकाष्ठा करने वाले इन विदेशी हमलावरों ने जितने अत्याचार और क्रूरता हमारे देश में की, उसे स्मरण कर इन्हें धिक्कारने के बजाय हम लोग इनके कुकृत्यों पर इतराते हैं जो शर्मनाक है।
इस कलंक की वजह से प्रदूषण का हवाला देकर आगरा और उसके निकटवर्ती जनपदों में औद्योगिक विकास रूका पड़ा है।
उन हजारों हुनरमंद कारीगरों की याद में हमारी सरकार को ताज महल के अन्दर उपयुक्त स्थान पर एक भव्य स्मारक बनाकर ऐसा कुछ करना चाहिए जिससे उनकी आत्मा को शांति मिले।
जब रोया हिंदुस्तान
हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी पहली कविता इसी क्रूरता पर लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘जब रोया हिन्दुस्तान’। अटल जी जब ताजमहल देखने गये थे तो उन्होंने इसे दूर से ही देखा। वह अंदर नहीं गये क्योंकि हैवानियत भरी क्रूरता उनकी अन्तरात्मा को रूला रही थी,
उसी दौरान उन्होंने यह कविता लिखी थी जिसके बोल कुछ इस तरह थेः-
यह ताजमहल, यह ताजमहल
यमुना की रोती धार विकल
कल-कल चल-चल
जब रोया हिंदुस्तान सकल
तब बन पाया ताजमहल
यह ताजमहल, यह ताजमहल।
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