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खामोश मिजाजी हमें जीने नहीं देगी, इस दौर में जीना है तो कोहराम मचाना पड़ेगा- शंभू चरण दुबे……

अमित मिश्रा/सतना।

शंभू चरण दुबे बाइज्जत हुए बरी।

मुश्किलों में भी नहीं डिगे जनहित की लड़ाई में आज भी अडिग

हवा और तूफानों से कमजोर पेड़ टूट जाते हैं, लेकिन जो पेड़ मजबूत और जड़ों से जुड़े होते हैं, वे हर आंधी का डटकर सामना करते हैं। यही मिसाल पेश करते हैं सतना के लोकप्रिय समाजसेवी शंभू चरण दुबे, जिनका पूरा जीवन संघर्ष, सेवा और समर्पण की एक प्रेरक कहानी है।

दो दशकों से सामाजिक सरोकारों की राह पर चल रहे दुबे ने हर उस तबके की आवाज उठाई, जो समाज के किनारों पर खड़ा होकर भी न्याय की आस लगाए बैठा था। चाहे अतिथि शिक्षक हों या आशा-आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, संविदा कर्मी हों या फैक्ट्री मजदूर, शंभू हर वर्ग की लड़ाई में सबसे आगे नजर आए।
उन्होंने जेल की सलाखों तक का सामना किया, पुलिसिया कार्रवाई झेली, लेकिन जनहित की आवाज कभी धीमी नहीं पड़ी। वे कहते हैं- “खामोश मिजाजी हमें जीने नहीं देगी, इस दौर में जीना है तो कोहराम मचाना पड़ेगा।” यही जज्बा उनके व्यक्तित्व की पहचान है।

सर्वहारा वर्ग के सच्चे रक्षक।

शंभू चरण दुबे ने हमेशा एकजुटता को ही ताकत माना। उन्होंने मजदूरों के अधिकारों के लिए बिरला सीमेंट फैक्ट्री के गेट पर शांतिपूर्ण आंदोलन का बिगुल फूंका। बोनस और नियमितीकरण की मांगों को लेकर जब प्रबंधन ने मजदूरों को अनसुना किया, तब मजदूरों को शंभू चरण दुबे में उम्मीद की किरण दिखी।
प्रबंधन को उनका यह नेतृत्व रास नहीं आया और उन्हें पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन 19 जून 2025 को हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति श्री संजय द्विवेदी ने साफ शब्दों में कहा- आरोप झूठे हैं। और शंभू चरण दुबे बाइज्जत बरी हुए।

यह फैसला सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि एक विचार की जीत थी, जो अन्याय के खिलाफ खड़ा रहना सिखाता है।

नीली साड़ी आंदोलन की गूंज।

गरीब तबके की महिलाओं को पुलिस द्वारा नीली साड़ी पहनाकर ड्यूटी में लगाने का मामला सामने आया, तो शंभू चरण दुबे ने सवाल उठाया- नीली साड़ी, सिर पर टोपी और हाथ में झंडा… आखिर ये कौन हैं?
उनकी यह आवाज पूरे शहर में गूंज गई। प्रशासन जवाब नहीं दे सका और अंततः शंभू ने कलेक्ट्रेट चौराहे पर गांधीवादी अनशन शुरू किया।
यह आंदोलन इतना असरदार साबित हुआ कि प्रशासन को नीतिगत निर्णयों पर पुनर्विचार करना पड़ा। यह था लोकतंत्र में आमजन की आवाज की सच्ची ताकत।

आंदोलन जिसने सरकार को झकझोरा।

वर्ष 2018 में शंभू चरण दुबे द्वारा शुरू किया गया आशा-आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का आंदोलन प्रदेश की राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ बन गया।
उन्होंने कई हजारों महिलाओं को एकजुट कर उनके अधिकारों की आवाज सड़क से लेकर शासन तक पहुंचाई। रैलियों की गूंज इतनी प्रखर थी कि सरकार को अपनी नीति बदलने पर मजबूर होना पड़ा।
इस आंदोलन ने शंभू को जनता के नेता के रूप में स्थापित किया, वह नेता जो सत्ता से नहीं, जनता से ताकत लेता है।

हर दुख में साथ, हर आंसू में संवेदना।

शंभू चरण दुबे का जीवन सिर्फ संघर्षों से नहीं, संवेदनाओं से भी भरा है। चाहे कैंसर पीड़ित महिला का इलाज हो, गरीब बेटी की शादी, दाह संस्कार का खर्च या अनाथों की मदद, शंभू हर बार मदद के लिए आगे खड़े रहे।
उन्होंने सैकड़ों लोगों को ₹5,000 से ₹10,000 तक की आर्थिक सहायता दी।
सत्ता के लोग जहां सवालों से घबराते हैं, वहीं शंभू हर सवाल के सामने सीना तानकर खड़े हो जाते हैं। उनके मानवीय कार्यों ने उन्हें हर वर्ग का अपना बना दिया है।

सत्ता के दमन में भी जनसेवा का दीपक।

जेल यात्रा, पुलिसिया दबाव और सत्ता के तमाम दमन के बावजूद शंभू चरण दुबे आज भी जनता के बीच उसी उत्साह से सक्रिय हैं।
वे कहते हैं- जनता का प्यार और न्यायपालिका का आशीर्वाद ही मेरी सबसे बड़ी पूंजी है।
अब जब न्यायालय ने उन्हें बाइज्जत बरी किया है, शंभू चरण दुबे फिर उसी जुनून के साथ जनसेवा के मार्ग पर लौटे हैं। उनका वादा है, जीवन की अंतिम सांस तक सर्वहारा वर्ग के अधिकारों के लिए लड़ता रहूंगा।

सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं।

शंभू चरण दुबे का जीवन इस सत्य का साक्षी है कि जो न्याय और सच्चाई के साथ खड़ा रहता है, उसे कोई शक्ति हरा नहीं सकती।
2007 में सेफ हैंड चिटफंड घोटाले के खिलाफ ताला लगाकर आंदोलन शुरू करने वाले इस युवक ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
भ्रष्टाचार, अत्याचार और अन्याय के खिलाफ हर मोर्चे पर उन्होंने जंग लड़ी, और आज भी लड़ रहे हैं।
उनका जीवन संदेश देता है-
जो समाज के लिए जीता है, उसका नाम मिटता नहीं…….

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