आखिर गरीब को कब मिलेगा न्याय? सतना जिला अस्पताल में इंसानियत को शर्मसार करती बर्बरता की दर्दनाक दास्तां……
अमित मिश्रा/सतना।

सतना। सरदार वल्लभ भाई पटेल जिला अस्पताल में बीते दिन घटी एक हृदयविदारक घटना ने न केवल इंसानियत को झकझोर कर रख दिया, बल्कि जिले की कानून व्यवस्था, पुलिस की भूमिका और सामाजिक संवेदनशीलता को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है।
चोरी के संदेह में एक गरीब युवक को अस्पताल परिसर में दिनदहाड़े बेरहमी से पीटा गया। जब उसकी जेब और थैला खंगाला गया तो उसमें से सिर्फ दो सूखी रोटियां और एक नमक की पुड़िया निकली।
लेकिन अफसोस की बात यह रही कि न तो किसी ने उसे बचाया, न ही पुलिस ने कोई कार्यवाही की। पीड़ित युवक थाने भी नहीं गया, शायद इसलिए कि उसे यकीन था, गरीबों की कोई सुनवाई नहीं होती।
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, युवक अस्पताल में किसी मरीज को देखने आया था। जब वह बाहर निकला, तभी दो युवकों ने उसे घेर लिया और चोरी का आरोप लगाते हुए उस पर हमला बोल दिया। बिना किसी जांच या सवाल-जवाब के, सीधे लात-घूंसे और डंडों से उसे पीटा जाने लगा। युवक बार-बार मिन्नतें करता रहा, हाथ जोड़कर कहता रहा कि वह चोर नहीं, लेकिन किसी ने उसकी एक न सुनी।

अस्पताल परिसर में दर्जनों लोग तमाशबीन बने रहे, कोई आगे नहीं आया। वह युवक लगातार मार खाता रहा, सिर से खून बहने लगा, बदन सूज गया, लेकिन उसे रोकने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। बाद में हमलावरों ने जब उसकी तलाशी ली और उसमें केवल दो रोटियां और नमक निकला, तो वे सन्न रह गए और मौके से भाग निकले।
यह घटना ना केवल प्रशासनिक विफलता मानी जा रही है, बल्कि सामाजिक संवेदनहीनता का आईना भी है। पुलिस चौकी महज कुछ कदम की दूरी पर स्थित है, लेकिन न तो कोई पुलिसकर्मी मौके पर पहुंचा और न ही कोई सीसीटीवी फुटेज या गश्ती दस्ते ने समय रहते हस्तक्षेप किया।
स्थानीय लोगों का कहना है कि अस्पताल की पुलिस चौकी के कर्मचारी ज्यादातर व्यक्तिगत कार्यों और अस्पताल दलाली में व्यस्त रहते हैं। मरीज को भर्ती कराना हो, मृत्यु या जन्म प्रमाण पत्र बनवाना हो या किसी खास व्यक्ति को सुविधा दिलवाना हो, इन सब में चौकी का समय जाता है। सुरक्षा और कानून व्यवस्था को निभाने की जवाबदारी मात्र कागजों तक सीमित है।
सबसे चिंताजनक बात यह रही कि पीड़ित युवक ने न तो कोई शिकायत दर्ज कराई और न ही थाने पहुंचा। वह घटना के बाद चुपचाप चला गया। शायद यह सोचकर कि “मैं गरीब हूं, मुझे कौन सुनेगा?” यह मौन ही सबसे बड़ा बयान है, जो बताता है कि आज का समाज कितना असमान और असंवेदनशील हो चुका है।
जब गरीब इंसाफ पाने की उम्मीद छोड़ देता है, तो समाज में न्याय की अवधारणा खोखली हो जाती है।
इस घटना का एक वीडियो किसी ने बनाकर सोशल मीडिया पर डाल दिया। यह वीडियो वायरल हो रहा है और आम जनता के बीच रोष की लहर फैल गई है। लोग सवाल पूछ रहे हैं कि क्या अब सोशल मीडिया ही न्याय का नया मंच बन गया है? क्या गरीबों की आवाज सिर्फ वायरल वीडियो के भरोसे ही सुनी जाएगी?
लोगों में इस बात को लेकर भी भारी नाराजगी है उनका कहना है कि जब भी पुलिस कोई छोटी कार्यवाही करती है, तो उसकी फोटो-वीडियो तुरंत सोशल मीडिया पर प्रसारित की जाती है। थाना और चौकी स्तर पर कर्मचारी कार्यवाही से ज्यादा प्रचार में रुचि रखते हैं। नगर भ्रमण या तलाशी अभियान की फोटो तक वायरल की जाती है, ताकि वाहवाही बटोरी जा सके। लेकिन जब ऐसी घटनाएं घटती हैं, तब पुलिस मौनव्रत धारण कर लेती है?
सवाल सिर्फ पुलिस पर ही नहीं है, अस्पताल प्रशासन की भूमिका भी संदिग्ध है। आखिर इतनी बड़ी घटना अस्पताल परिसर में हुई और किसी अधिकारी ने कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? क्या वहां तैनात सुरक्षाकर्मी भी सिर्फ दिखावे भर के लिए हैं? अस्पताल प्रशासन की चुप्पी, या कहें उदासीनता, भी इस अमानवीयता को बढ़ावा देने में दोषी है।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या जिला प्रशासन इस मामले का स्वतः संज्ञान लेगा? क्या पीड़ित की खोज कर उसे न्याय दिलाने की कोशिश होगी? या फिर यह घटना भी अखबार की सुर्खियां बनकर, कुछ पोस्टों की लाइक-शेयर गिनती तक सिमट जाएगी?
समाज को भी झांकना होगा अपने भीतर।
अगर हम इस घटना को केवल प्रशासनिक चूक मानकर भूल जाते हैं, तो यह हमारी भी उतनी ही बड़ी असफलता है। जब हम किसी गरीब को पीटते हुए देख चुप रहते हैं, तब हम अन्याय के साझेदार बन जाते हैं। समाज को भी आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है, क्यों हम इतने संवेदनहीन हो गए हैं?